नक्सलियों पर नकेल जरुरी है
क्रांति हमेशा भूखे पेटों से ज्वाला बन के निकलती है। और अपने हक को हासिल करने के लिए यदि वह कानून व्यवस्था को हाथ में लेकर खून बहाने से गुरेज न करे आश्चर्य नहीं करना चाहिए। विदेशों साम्यवादी चिंतक ने यह बात बहुत सोच विचार के बाद भले ही कही हो लेकिन अब यह अर्धसत्य बन के रह गया है। भारत में बढ़ रही नक्सली हिंसा विदेशी खतरों से ज्यादा चिंता जनक है। माओ के कथित अनुयायिओं व नक्सलियों पर नकेल की जरूरत बता रहे है - शैलेन्द्र चिंतक
अब देश् के कई हिस्सों में लाल गढ़ गढ़ने में जुट गए है नक्सली संगठन। केन्द्र सरकार कभी इनसे निपटने के लिए कभी हवाई हमलों की घोषणा करती है तो कभी फैसले से पलट जाती है। अक्टूबर तक देश के कई हिस्सों में खून की होली खेल पुलिस व सुरक्षा बलों के जाबांज जवानों की बलि लेने वाले संगठनों से रियासत करना कायरता ही होगी। देश के गृहमंत्री पी चिदम्बरम् के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। साथ ही सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के रवैए का भी खुलासा हो जाएगा कि इस प्रबलतम चुनौती से निपटने को वे कितनी तव्वजों देते है या यूं ही राजनीतिक स्टेटमेंटों के जरिए रक्षा व आक्रमण की सियासत कर आंतरिक सुरक्षा को चुनौती बने दुश्मन नम्बर एक को मनमानी की छूट मिलती रहेगी।
इसे विडम्बना ही कहा जाए कि अब भारत को अपने पड़ोसियों पर अन्य राष्ट्रों से सामरिक खतरा इतनी बड़ी चिंता की बात नहीं है जितना देश के गद्दार नक्सलियों की गतिविधियां। राजनीतिक दलों व उनके नेता इन संगठनों के बचाव में आखिर क्यों खड़े है क्या राजनीति लाभ के लिए जवानों की जान की कीमत लगाना लोकतंत्र ही नहीं राष्ट्र के साथ धोखा नहीं है।
दरअसल देश की आर्थिक तकनीकी वैज्ञानिक सामरिक एवं अन्य क्षेत्र में बढ़ती ताकत पाकिस्तान व चीन के पेट में जलन पैदा कर रही है। चन्द्रमा में पानी खोजने के कारनामे के बाद तो पश्चिमी मुल्क भी डाह रख रहे है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को अस्थिर करने व प्रगति के मार्ग पर बैरियर लगाने के लिए चीन पाकिस्तान बांग्लादेश नेपाल व अन्य देश इन संगठनों को मद्दत कर रहे है। अब तो माओवादियों व नक्सलियों के साथ मुस्लिम आंतकी संगठनों की साठगांठ भारत को आंतकवाद का ठिकाना बनाने का दुष्चक्र रचा जा रहा है। यही कारण है अचानक २००९ में नक्सली घटनाओं में इजाफा हो गया।
सबसे बुरा हाल तो बंगाल का है। जहां इस संगठन का जन्म हुआ। बीते तीस सालों से नक्सली वारदातों पर मार्क्सवादी शासन के बीच दुरभि संधि के चलते अंकुष लगा था। लेकिन अचानक बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने इन पर जब शिकंजा कसना शुरू किया (राजनीतिक कारणों से तो यहां पर खून का खेल शुरू हो गया। लालगढ़ व अन्य जगहों पर माओवादियों ने शासन व प्रषासन को खुली चुनौती देनी शुरू कर दी। हाल ही में एक थानाध्यक्ष की रिहाई के लिए पुलिस को माओवादियों की कथित सहयोगी बनी १५ महलाओं को छोड़ना पड़ा। राज्य सरकार यह घुटना टेकना अब भारी पड़ सकता है।
बीते दिनों नक्सलियों ने झारखण्ड छत्तीसगढ़ बिहार आन्ध्र महाराष्ट्र एवं बंगाल में पुलिस व सुरक्षा बलों पर भारी हमला किया। ७२ पुलिस कर्मी एक माह में शहीद हो गए। इसके बाद भी इनके सफाए के लिए सख्त कार्यवाही नहीं की गई। जिससे नक्सलियों के हौसले सातवें आसमान पर है।
आगाज -
चीन से आयतित इस विचारधारा को चीनी महानायक माओत्से तुंग ने १९३४ में रोया था। १९६४ में सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर इसे फैलाया गया। भारत की वामपंथी पार्टियों के आदर्ष भी माओ चाऊ इन लाई रहे। बाद में माकपा के उदय होने पर साम्यवादी की रूसी विचारधारा पनपी। लेकिन नक्सलपंथ की शुरूआत बंगाल के नक्सलबाड़ी (जिली दार्जिलिंग में १९६७ में हुई। ४२ सालों में इसके जड़े देश के ७५ फीसद भूभाग तक पंहुच गई। इसके संस्थापकों में कानपुर के मजदूर नेता व जूही कालोनी के निवासी रहे विनोद मिश्र भी थे। चारू मजूमदार एवं कानु सन्याल ने कृषि मजदूरों एवं भूमिहीनों को उनका अधिकार दिलाने के लिए इसकी शुरूआती की। तबसे इस संगठन को नक्सली व इससे जुड़े लोगों को नक्सलाइट कहा जाने लगा। अपने तीखे तेवरों व गरीबों बेसहारों सर्वहारा लोगों शोषितों किसानों व मजदूरों के बीच यह संगठन लोकप्रिय होता गया। बाद में शासन प्रशासन से टकराव के कराण इन्होंने हथियार उठा लिए।
कारण
आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना प्रदेश की मांग को लेकर व महाराष्ट्र मध्यप्रदेश उड़ीसा बिहार में संगम की गतिविधियां जारी हो गयी। धीरे-धीरे इसको राजनीतिक संरक्षण मिलने लगा। जिसका परिणाम यह हुआ यह संगठन मजबूत एवं बेलगाम होता गया। वांमपंथी नेताओं ने विदेशी ताकतों से इसका संबंध स्थापित करा दिया और आज यह भारत के लिए नासूर बन गया। आज यह संगठन आमजन के बीच दहश्ात का पर्याय बन चुका है। इसकी चाल चेहरा व चरित्र भी बदल गया है। पूर्वोतर यूपी असम मेघालय मणिपुर नागालण्ड कर्नाटक तमिलनाडु हरियाणा पंजाब तक इसका नेटवर्क सक्रिय हो चुका है। बंगाल में वो महज मार्क्सवादी काडरियों ने सत्ता का लाभ हुए सम्पन्नता छीनी। उनकी नीतियां व सिद्वांत अलग हैं और क्रियान्वयन अलग। आदिवासियों व भूमिहीनों की रोजी-रोटी पर डाका डाला गया। उद्योगपतियों से सांठगांठ का परिणाम नंदीगांव खेजरी सिंगूर जैसी जगहों पर बेघर किये जाने से नकसलियों के उकसाये में आदिवासियों ने प्रषासन के छक्के छुड़ा दिए। यही कारण है कि यहॉ पर माओवादियों को सहानुभूति मिल रही है। राजिनीतिक रोटियां सेंकना तो सियासी दलों की फितरत है ऐसे मे उनका इन संगठनों को अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देना देश के साथ गद्दारी सरीखा है। आज जयचंदों व मिर्जाफरों की फौज एकत्र है। ऐसे में भारत की एकता व अखंडता को चुनौती दे रहे लोगों से निपटने में सख्ती न करना मनमोहन सरकार की भारी भूल होगी।
दूसरी ओर कई राज्यों की सरकारें अपने विरोधियों या सरकारी नीतियों की पोल खोल रहे लोगों को नकसली बताकर उनको जेल में ठूंस कर अमानवीय यातनाएं दे रहे है। इससे बजाय नक्सलियों को सहायता देने में कमी आने के लोगों में आक्रोश बढ़ने के कारण उन्हें क्षेत्रीय लोगों का समर्थन मिल रहा है। इसके कारण लोग अब समूह के रूप में हिसंक होकर फोर्स व पुलिस पर हमलावर हो रहे है। थानों चौकियों व सरकारी दफतरों में हमले बढ़ रहे है। जबसे पड़ोसी देश नेपाल में माओवादियों की सरकार बनी तबसे भारत में नक्सली वारदातें यकायक बढ़ गई।
सरकारी नीतियां -
सबसे अह्म सवाल यह है कि नक्सलियों को यह ताकत कौन और कैसे दे रहा है। स्थानीय स्तर पर इन्हें क्यों समर्थन मिल रहा है। स्थानीय खुफिया व पुलिस को इसकी भनक क्यो नहीं मिल रही। इनके आर्थिक व अन्य संसाधन कौन आर क्यों मुहैया करा रहा है। सिर्फ नक्सलियों को कोसने या निंदा करने से इस समस्या का हल होने से रहा। आखिर अचानक इस विचार धारा के प्रति आज की पीढ़ी में इतनी ललक क्यों है।
कारण साफ है हमारे देश की वर्तमान सामाजिक आर्थिक राजनीतिक एवं धार्मिक स्थितियां ऐसी है कि जो देशवासियों में विभिन्न मुद्दों पर अलगांव पैदा कर रही है। सरकारी महकमों की कार्यप्रणाली कोढ़ में खाज का काम कर रही है। वांचितों को जब तक संवैधानिक व सामयिक हक नहीं दिया जाएगा यह आग बुझने से रही। गृहमंत्री पी चिदबरम् की रणनीति भी किसी के पल्ले नहीं पड़ रही है। उनका कहना है कि सैन्य कार्यवाही नक्सलियों पर नहीं नक्सलवाद पर की जाएगी। अब उन्हें कौन समझाए कि नक्सलवाद का न तो चेहरा है न ही शरीर । आखिर किसी विचारधारा को कैसे खत्म कर देंगे चिदम्बरम् साहब। उन्हें पता होना चाहिए कि जिस तरह समाज व्यक्तियों का समूह है। उसी तरह नकसलवाद भी व्यक्तियों द्वारा पोषित एवं परिचालित है। क्या किसी नक्सली को मारे बिना नक्सलवाद खत्म हो जाएगी।
स्वयं देश्ा के प्रधानमंत्री गृहमंत्री व आला सुरक्षाधिकारी सैन्य संगठनों के जिम्मेदार पर्सन कह चुके हैं कि देश के पढ़े-लिखे लोग व बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले शख्स भी नक्सलवाद से प्रभावित होकर उसको समर्थन दे रहे है। यदि यह सही है तो यह सरकार व मंत्रियों की कमजोरी व हमारे भ्रष्ट सिस्टम का असली चेहरा उजागर करता है। कागजी विकास के नाम जो नेताओं ठेकेदारों अफसरोंमाफियाओं ने डकारी उस पर आम जनता का हक था। उन्हें सुविधाओं के बदले जब बेइज्जती व यातना मिली तो मजबूरी मे उन्हें बागी बनना पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि समस्या का हल हिंसा या सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लेना सही है। देश की सुरक्षा व कानून से खेलने का किसी को हक नहीं है। लेकिन इन लोगों को इस हालत में धकेलने वाले लोगों को भी कोई हक नहीं है कि वे शासन-प्रशासन पर को चलाएं और अपनी जान बचाने के लिए आमजन या सुरक्षा बलों व पुलिस के जवानों की जान का सौदा करते रहे।
कहां गया सौ दिन का एजेण्डा
पुनः सत्ता पाते ही संप्रग के नेता व मंत्रीगण मदमस्त हो गए। अवाम को बेवकूफ समझने लगे। तमाम चंटघंटियों को मंत्रालय मिल गए। आनन-फानन में मनमोहनी तान झेड़ दी गई और सौ दिन का एजेण्डा घोषित कर दिया गया। इस ऐजेण्डे के जरिए पब्लिक को लुभाने व झांसे में डालने का उपक्रम शुरू हो गया। इन सौ दिनों में विभिन्न मंत्रालयों ने कुछ लक्ष्य विकास के तय किए थे। इसके अलावा देश की आंतरिक सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए भी नीति बनी थी। जिससे नक्सलवाद को देश का एक नम्बर का शत्रु घोषित किया गया था। इससे निपटने के लिए नक्सलवाद की मेरूदण्ड को तोड़ कर उसके नेटवर्क को ध्वस्त करने का वायदा गृहमंत्री ने किया था। पर सौ दिन क्या दो सौ दिन गुजर गए हालत बद से बदत्तर हो गई और आज भी वाग्विलास जारी है। नक्सल प्रभावित राज्यों व जिलों की सरहदों में पुख्ता सुरक्षा इंतजाम की बात हवा हवाई साबित हुई। प्रभावित इलाकों के थानों को आधुनिक संसाधनों से लैस नहीं किया जा सका। संचार व मानीटरिंग संसाधन बाबा आदम जमाने के है। यहां तक गाड़ियां असलहें सुरक्षा कवच चिकित्सीय सुविधाएं तक स्तरीय नहीं है। बारूदी सुरंगों से जूझने प्रोरेक्षन के संसाधन स्थानीय खुफिया व मुखबिर तन्त्र भी दुरूस्त नहीं हो सका। ऐसे नक्सलियों के सफाए या उनसे कारगर ढंग से निपटने की बात सोचना भी हास्यास्पद है। नक्सलियों से निपटने के लिए देश में चार स्पेशल सुरक्षा गार्ड ट्रेनिंग सेन्टर खोलने की घोषणा हवा-हवाई साबित हुई।
बीते तीन माह में सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही पचास से ज्यादा पुलिस व सुरक्षा बल के जवान खेल खेल रहे। कभी गृहमंत्री कहते हैं कि राज्य सरकारें अपने सूबे की आंतरिक सुरक्षा स्वयं करें वहीं इसके जिम्मेदार है तो कभी कहते है कि केन्द्र पूरी मद्दत को तैयार है। वारदात होने पर सिर्फ मगरमच्छी आंसू बहा कर बड़े-बड़े दावे करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है।
सबसे ज्यादा बंटाधार तो पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल और उनके राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल व शकील अहमद ने किया। अपने सीनियर की तरह ये मंत्री नक्सलियों से निपटने के लिए अपनी जुबान का प्रयोग करते रहे। न तो ठोस रणनीति बनाई और न ही कहीं सुरक्षा पुख्ता की गई। सभी दोष राज्य सरकार के सिर मढ़ दिया जाता रहा। पूर्व गृह मंत्री ने तो नक्सलियों को भारतीय बच्चा बताते हुए उन्हें रियायत देते रहे। दूसरे आंतकवादी संगठनों की तरह सख्त कार्यवाही से बचते रहे। देश की सुरक्षा चुनौती देने वाले दो संगठनों मुस्लिम आंतकवादी संगठन व नक्सलियों के साथ एक ही अपराध पर दो तरह का व्यवहार नक्सलियों को बढ़ावा दे रहा। वाद नक्सलियों व माओवादियों को हथियार छोड़ राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़ने की कवायद में इनाम दिए जाने की घोषणा ने फजीहत कराई। हाल ही में नक्सलियों पर हवाई हमलों की घोषणा की गई बाद में प्रधानमंत्री मुकर गए। यानी केन्द्र सरकार के सरकारी विभागों व मंत्रालयों के बीच अभी भी संवादहीनता है। तभी बचकानी घोषणएं होती है और बाद में उसकी वापसी हो जाती है।
आज भारत को मुस्लिम आंतकवाद से ज्यादा वामपंथी आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। इन्हें कहीं न कहीं माकपा माले तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय कांग्रेस व उसके अन्य सहयोगी दलों का समर्थन मिलता रहा है और आरोप भी लगे है। ऐसी दशा में प्रभावित इलाके के लोग सुरक्षा के लिए क्या अमेरिका या रूस से गुहार करें १९७२ में आन्ध्र के दो नक्सली नेताओं भूभय्या व उसके साथी को फांसी दी गई। तब वहां पर नक्सलवाद पर नकेल लग गई थी। लेकिन इधर तथा कथित मानवाधिकारों के संरक्षक धर्मनिरपेक्ष एवं सरकारी दमन के विरोधी तत्वों व संगठनों की बढ़ती सक्रियता की चिंता का सबब है। क्योंकि जो लोग देश्ा के सुरक्षा कर्मियों पुलिस आम जनता सरकारी विभागों को निशाना बना रहे है निर्मम कत्ल कर रहे है आतंक फैलाकर खून से धरती लाल कर रहे है वे रहम के हकदार नहीं।
देश्ा इस समय जिस दौर से गुजर रहा है इस समय राजनीतिक दुराव अन्तविरोधों को दरकिनार कर भारत विरोधी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देकर देश्ा का नम्बर वन दुष्मन बने नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए सभी को एक साथ खड़ा होना चाहिए। शोषण या हक न मिलने का रास्ता भी खोलना पड़ेगा वरना यह विषवेल अमरवेल बन देष की गर्दन को कसता रहेगा।
ये आंकड़े सरकारी है। स्थानीय लोगों की मानी जाए तो वारदातों की संख्या, हताहतों की संख्या, ज्यादा हो सकती है। क्योंकि मृतकों की जब तक लाष नहीं मिलती या सबूत नहीं मिलता तब तक उन्हें मृतक घोषित नहीं किया जा सकता।
अब देश् के कई हिस्सों में लाल गढ़ गढ़ने में जुट गए है नक्सली संगठन। केन्द्र सरकार कभी इनसे निपटने के लिए कभी हवाई हमलों की घोषणा करती है तो कभी फैसले से पलट जाती है। अक्टूबर तक देश के कई हिस्सों में खून की होली खेल पुलिस व सुरक्षा बलों के जाबांज जवानों की बलि लेने वाले संगठनों से रियासत करना कायरता ही होगी। देश के गृहमंत्री पी चिदम्बरम् के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। साथ ही सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के रवैए का भी खुलासा हो जाएगा कि इस प्रबलतम चुनौती से निपटने को वे कितनी तव्वजों देते है या यूं ही राजनीतिक स्टेटमेंटों के जरिए रक्षा व आक्रमण की सियासत कर आंतरिक सुरक्षा को चुनौती बने दुश्मन नम्बर एक को मनमानी की छूट मिलती रहेगी।
इसे विडम्बना ही कहा जाए कि अब भारत को अपने पड़ोसियों पर अन्य राष्ट्रों से सामरिक खतरा इतनी बड़ी चिंता की बात नहीं है जितना देश के गद्दार नक्सलियों की गतिविधियां। राजनीतिक दलों व उनके नेता इन संगठनों के बचाव में आखिर क्यों खड़े है क्या राजनीति लाभ के लिए जवानों की जान की कीमत लगाना लोकतंत्र ही नहीं राष्ट्र के साथ धोखा नहीं है।
दरअसल देश की आर्थिक तकनीकी वैज्ञानिक सामरिक एवं अन्य क्षेत्र में बढ़ती ताकत पाकिस्तान व चीन के पेट में जलन पैदा कर रही है। चन्द्रमा में पानी खोजने के कारनामे के बाद तो पश्चिमी मुल्क भी डाह रख रहे है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को अस्थिर करने व प्रगति के मार्ग पर बैरियर लगाने के लिए चीन पाकिस्तान बांग्लादेश नेपाल व अन्य देश इन संगठनों को मद्दत कर रहे है। अब तो माओवादियों व नक्सलियों के साथ मुस्लिम आंतकी संगठनों की साठगांठ भारत को आंतकवाद का ठिकाना बनाने का दुष्चक्र रचा जा रहा है। यही कारण है अचानक २००९ में नक्सली घटनाओं में इजाफा हो गया।
सबसे बुरा हाल तो बंगाल का है। जहां इस संगठन का जन्म हुआ। बीते तीस सालों से नक्सली वारदातों पर मार्क्सवादी शासन के बीच दुरभि संधि के चलते अंकुष लगा था। लेकिन अचानक बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने इन पर जब शिकंजा कसना शुरू किया (राजनीतिक कारणों से तो यहां पर खून का खेल शुरू हो गया। लालगढ़ व अन्य जगहों पर माओवादियों ने शासन व प्रषासन को खुली चुनौती देनी शुरू कर दी। हाल ही में एक थानाध्यक्ष की रिहाई के लिए पुलिस को माओवादियों की कथित सहयोगी बनी १५ महलाओं को छोड़ना पड़ा। राज्य सरकार यह घुटना टेकना अब भारी पड़ सकता है।
बीते दिनों नक्सलियों ने झारखण्ड छत्तीसगढ़ बिहार आन्ध्र महाराष्ट्र एवं बंगाल में पुलिस व सुरक्षा बलों पर भारी हमला किया। ७२ पुलिस कर्मी एक माह में शहीद हो गए। इसके बाद भी इनके सफाए के लिए सख्त कार्यवाही नहीं की गई। जिससे नक्सलियों के हौसले सातवें आसमान पर है।
आगाज -
चीन से आयतित इस विचारधारा को चीनी महानायक माओत्से तुंग ने १९३४ में रोया था। १९६४ में सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर इसे फैलाया गया। भारत की वामपंथी पार्टियों के आदर्ष भी माओ चाऊ इन लाई रहे। बाद में माकपा के उदय होने पर साम्यवादी की रूसी विचारधारा पनपी। लेकिन नक्सलपंथ की शुरूआत बंगाल के नक्सलबाड़ी (जिली दार्जिलिंग में १९६७ में हुई। ४२ सालों में इसके जड़े देश के ७५ फीसद भूभाग तक पंहुच गई। इसके संस्थापकों में कानपुर के मजदूर नेता व जूही कालोनी के निवासी रहे विनोद मिश्र भी थे। चारू मजूमदार एवं कानु सन्याल ने कृषि मजदूरों एवं भूमिहीनों को उनका अधिकार दिलाने के लिए इसकी शुरूआती की। तबसे इस संगठन को नक्सली व इससे जुड़े लोगों को नक्सलाइट कहा जाने लगा। अपने तीखे तेवरों व गरीबों बेसहारों सर्वहारा लोगों शोषितों किसानों व मजदूरों के बीच यह संगठन लोकप्रिय होता गया। बाद में शासन प्रशासन से टकराव के कराण इन्होंने हथियार उठा लिए।
कारण
आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना प्रदेश की मांग को लेकर व महाराष्ट्र मध्यप्रदेश उड़ीसा बिहार में संगम की गतिविधियां जारी हो गयी। धीरे-धीरे इसको राजनीतिक संरक्षण मिलने लगा। जिसका परिणाम यह हुआ यह संगठन मजबूत एवं बेलगाम होता गया। वांमपंथी नेताओं ने विदेशी ताकतों से इसका संबंध स्थापित करा दिया और आज यह भारत के लिए नासूर बन गया। आज यह संगठन आमजन के बीच दहश्ात का पर्याय बन चुका है। इसकी चाल चेहरा व चरित्र भी बदल गया है। पूर्वोतर यूपी असम मेघालय मणिपुर नागालण्ड कर्नाटक तमिलनाडु हरियाणा पंजाब तक इसका नेटवर्क सक्रिय हो चुका है। बंगाल में वो महज मार्क्सवादी काडरियों ने सत्ता का लाभ हुए सम्पन्नता छीनी। उनकी नीतियां व सिद्वांत अलग हैं और क्रियान्वयन अलग। आदिवासियों व भूमिहीनों की रोजी-रोटी पर डाका डाला गया। उद्योगपतियों से सांठगांठ का परिणाम नंदीगांव खेजरी सिंगूर जैसी जगहों पर बेघर किये जाने से नकसलियों के उकसाये में आदिवासियों ने प्रषासन के छक्के छुड़ा दिए। यही कारण है कि यहॉ पर माओवादियों को सहानुभूति मिल रही है। राजिनीतिक रोटियां सेंकना तो सियासी दलों की फितरत है ऐसे मे उनका इन संगठनों को अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देना देश के साथ गद्दारी सरीखा है। आज जयचंदों व मिर्जाफरों की फौज एकत्र है। ऐसे में भारत की एकता व अखंडता को चुनौती दे रहे लोगों से निपटने में सख्ती न करना मनमोहन सरकार की भारी भूल होगी।
दूसरी ओर कई राज्यों की सरकारें अपने विरोधियों या सरकारी नीतियों की पोल खोल रहे लोगों को नकसली बताकर उनको जेल में ठूंस कर अमानवीय यातनाएं दे रहे है। इससे बजाय नक्सलियों को सहायता देने में कमी आने के लोगों में आक्रोश बढ़ने के कारण उन्हें क्षेत्रीय लोगों का समर्थन मिल रहा है। इसके कारण लोग अब समूह के रूप में हिसंक होकर फोर्स व पुलिस पर हमलावर हो रहे है। थानों चौकियों व सरकारी दफतरों में हमले बढ़ रहे है। जबसे पड़ोसी देश नेपाल में माओवादियों की सरकार बनी तबसे भारत में नक्सली वारदातें यकायक बढ़ गई।
सरकारी नीतियां -
सबसे अह्म सवाल यह है कि नक्सलियों को यह ताकत कौन और कैसे दे रहा है। स्थानीय स्तर पर इन्हें क्यों समर्थन मिल रहा है। स्थानीय खुफिया व पुलिस को इसकी भनक क्यो नहीं मिल रही। इनके आर्थिक व अन्य संसाधन कौन आर क्यों मुहैया करा रहा है। सिर्फ नक्सलियों को कोसने या निंदा करने से इस समस्या का हल होने से रहा। आखिर अचानक इस विचार धारा के प्रति आज की पीढ़ी में इतनी ललक क्यों है।
कारण साफ है हमारे देश की वर्तमान सामाजिक आर्थिक राजनीतिक एवं धार्मिक स्थितियां ऐसी है कि जो देशवासियों में विभिन्न मुद्दों पर अलगांव पैदा कर रही है। सरकारी महकमों की कार्यप्रणाली कोढ़ में खाज का काम कर रही है। वांचितों को जब तक संवैधानिक व सामयिक हक नहीं दिया जाएगा यह आग बुझने से रही। गृहमंत्री पी चिदबरम् की रणनीति भी किसी के पल्ले नहीं पड़ रही है। उनका कहना है कि सैन्य कार्यवाही नक्सलियों पर नहीं नक्सलवाद पर की जाएगी। अब उन्हें कौन समझाए कि नक्सलवाद का न तो चेहरा है न ही शरीर । आखिर किसी विचारधारा को कैसे खत्म कर देंगे चिदम्बरम् साहब। उन्हें पता होना चाहिए कि जिस तरह समाज व्यक्तियों का समूह है। उसी तरह नकसलवाद भी व्यक्तियों द्वारा पोषित एवं परिचालित है। क्या किसी नक्सली को मारे बिना नक्सलवाद खत्म हो जाएगी।
स्वयं देश्ा के प्रधानमंत्री गृहमंत्री व आला सुरक्षाधिकारी सैन्य संगठनों के जिम्मेदार पर्सन कह चुके हैं कि देश के पढ़े-लिखे लोग व बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले शख्स भी नक्सलवाद से प्रभावित होकर उसको समर्थन दे रहे है। यदि यह सही है तो यह सरकार व मंत्रियों की कमजोरी व हमारे भ्रष्ट सिस्टम का असली चेहरा उजागर करता है। कागजी विकास के नाम जो नेताओं ठेकेदारों अफसरोंमाफियाओं ने डकारी उस पर आम जनता का हक था। उन्हें सुविधाओं के बदले जब बेइज्जती व यातना मिली तो मजबूरी मे उन्हें बागी बनना पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि समस्या का हल हिंसा या सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लेना सही है। देश की सुरक्षा व कानून से खेलने का किसी को हक नहीं है। लेकिन इन लोगों को इस हालत में धकेलने वाले लोगों को भी कोई हक नहीं है कि वे शासन-प्रशासन पर को चलाएं और अपनी जान बचाने के लिए आमजन या सुरक्षा बलों व पुलिस के जवानों की जान का सौदा करते रहे।
कहां गया सौ दिन का एजेण्डा
पुनः सत्ता पाते ही संप्रग के नेता व मंत्रीगण मदमस्त हो गए। अवाम को बेवकूफ समझने लगे। तमाम चंटघंटियों को मंत्रालय मिल गए। आनन-फानन में मनमोहनी तान झेड़ दी गई और सौ दिन का एजेण्डा घोषित कर दिया गया। इस ऐजेण्डे के जरिए पब्लिक को लुभाने व झांसे में डालने का उपक्रम शुरू हो गया। इन सौ दिनों में विभिन्न मंत्रालयों ने कुछ लक्ष्य विकास के तय किए थे। इसके अलावा देश की आंतरिक सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए भी नीति बनी थी। जिससे नक्सलवाद को देश का एक नम्बर का शत्रु घोषित किया गया था। इससे निपटने के लिए नक्सलवाद की मेरूदण्ड को तोड़ कर उसके नेटवर्क को ध्वस्त करने का वायदा गृहमंत्री ने किया था। पर सौ दिन क्या दो सौ दिन गुजर गए हालत बद से बदत्तर हो गई और आज भी वाग्विलास जारी है। नक्सल प्रभावित राज्यों व जिलों की सरहदों में पुख्ता सुरक्षा इंतजाम की बात हवा हवाई साबित हुई। प्रभावित इलाकों के थानों को आधुनिक संसाधनों से लैस नहीं किया जा सका। संचार व मानीटरिंग संसाधन बाबा आदम जमाने के है। यहां तक गाड़ियां असलहें सुरक्षा कवच चिकित्सीय सुविधाएं तक स्तरीय नहीं है। बारूदी सुरंगों से जूझने प्रोरेक्षन के संसाधन स्थानीय खुफिया व मुखबिर तन्त्र भी दुरूस्त नहीं हो सका। ऐसे नक्सलियों के सफाए या उनसे कारगर ढंग से निपटने की बात सोचना भी हास्यास्पद है। नक्सलियों से निपटने के लिए देश में चार स्पेशल सुरक्षा गार्ड ट्रेनिंग सेन्टर खोलने की घोषणा हवा-हवाई साबित हुई।
बीते तीन माह में सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही पचास से ज्यादा पुलिस व सुरक्षा बल के जवान खेल खेल रहे। कभी गृहमंत्री कहते हैं कि राज्य सरकारें अपने सूबे की आंतरिक सुरक्षा स्वयं करें वहीं इसके जिम्मेदार है तो कभी कहते है कि केन्द्र पूरी मद्दत को तैयार है। वारदात होने पर सिर्फ मगरमच्छी आंसू बहा कर बड़े-बड़े दावे करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है।
सबसे ज्यादा बंटाधार तो पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल और उनके राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल व शकील अहमद ने किया। अपने सीनियर की तरह ये मंत्री नक्सलियों से निपटने के लिए अपनी जुबान का प्रयोग करते रहे। न तो ठोस रणनीति बनाई और न ही कहीं सुरक्षा पुख्ता की गई। सभी दोष राज्य सरकार के सिर मढ़ दिया जाता रहा। पूर्व गृह मंत्री ने तो नक्सलियों को भारतीय बच्चा बताते हुए उन्हें रियायत देते रहे। दूसरे आंतकवादी संगठनों की तरह सख्त कार्यवाही से बचते रहे। देश की सुरक्षा चुनौती देने वाले दो संगठनों मुस्लिम आंतकवादी संगठन व नक्सलियों के साथ एक ही अपराध पर दो तरह का व्यवहार नक्सलियों को बढ़ावा दे रहा। वाद नक्सलियों व माओवादियों को हथियार छोड़ राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़ने की कवायद में इनाम दिए जाने की घोषणा ने फजीहत कराई। हाल ही में नक्सलियों पर हवाई हमलों की घोषणा की गई बाद में प्रधानमंत्री मुकर गए। यानी केन्द्र सरकार के सरकारी विभागों व मंत्रालयों के बीच अभी भी संवादहीनता है। तभी बचकानी घोषणएं होती है और बाद में उसकी वापसी हो जाती है।
आज भारत को मुस्लिम आंतकवाद से ज्यादा वामपंथी आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। इन्हें कहीं न कहीं माकपा माले तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय कांग्रेस व उसके अन्य सहयोगी दलों का समर्थन मिलता रहा है और आरोप भी लगे है। ऐसी दशा में प्रभावित इलाके के लोग सुरक्षा के लिए क्या अमेरिका या रूस से गुहार करें १९७२ में आन्ध्र के दो नक्सली नेताओं भूभय्या व उसके साथी को फांसी दी गई। तब वहां पर नक्सलवाद पर नकेल लग गई थी। लेकिन इधर तथा कथित मानवाधिकारों के संरक्षक धर्मनिरपेक्ष एवं सरकारी दमन के विरोधी तत्वों व संगठनों की बढ़ती सक्रियता की चिंता का सबब है। क्योंकि जो लोग देश्ा के सुरक्षा कर्मियों पुलिस आम जनता सरकारी विभागों को निशाना बना रहे है निर्मम कत्ल कर रहे है आतंक फैलाकर खून से धरती लाल कर रहे है वे रहम के हकदार नहीं।
देश्ा इस समय जिस दौर से गुजर रहा है इस समय राजनीतिक दुराव अन्तविरोधों को दरकिनार कर भारत विरोधी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देकर देश्ा का नम्बर वन दुष्मन बने नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए सभी को एक साथ खड़ा होना चाहिए। शोषण या हक न मिलने का रास्ता भी खोलना पड़ेगा वरना यह विषवेल अमरवेल बन देष की गर्दन को कसता रहेगा।
ये आंकड़े सरकारी है। स्थानीय लोगों की मानी जाए तो वारदातों की संख्या, हताहतों की संख्या, ज्यादा हो सकती है। क्योंकि मृतकों की जब तक लाष नहीं मिलती या सबूत नहीं मिलता तब तक उन्हें मृतक घोषित नहीं किया जा सकता।
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