श्राद्ध कर्म: पितरों का पितृलोक
धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना
गया है। यह आत्माएं मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति
में रहते हैं।
पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।

अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांति काल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
वेदों
में
उल्लेखित है कि यम नाम की एक प्रकार की वायु होती है। देहांत के बाद कुछ आत्माएं उक्त वायु
में तब तक स्थित रहती हैं जब तक कि वे दूसरा शरीर धारण नहीं कर लेतीं। 'मार्कण्डेय पुराण' अनुसार दक्षिण दिशा के
दिकपाल और मृत्यु के
देवता को यम कहते हैं। वेदों में 'यम' और 'यमी' दोनों देवता मंत्रदृष्टा ऋषि माने गए हैं। वेदों के 'यम' का मृत्यु से कोई संबंध नहीं था पर वे पितरों के अधिपति माने गए हैं। यम के लिए पितृपति, कृतांत, शमन, काल, दंडधर, श्राद्धदेव, धर्म, जीवितेश, महिषध्वज, महिषवाहन, शीर्णपाद, हरि और कर्मकर विशेषणों
का प्रयोग होता है।
अंग्रेजी
में यम को प्लूटो कहते हैं। योग के प्रथम अंग को भी यम कहते हैं। दसों दिशाओं के दस
दिकपालों में से एक है यम।
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