छत्तीसगढ - वेदांता है राज्य सरकार की चहेती, भाड़ में जाये किसान, जनता और खेती
रायपुर/छत्तीसगढ़ 25 जुलाई 2015 (जावेद अख्तर). छत्तीसगढ़ में तकरीबन 50 मजदूरों को अपनी चिमनी में दबा कर मार डालने के आरोपों का सामना कर रही वेदांता के साथ राज्य के कई मंत्रियों का प्रेम चरम पर पहले भी था और अभी भी बदस्तूर जारी है। यह अलग बात है कि दुनिया के कई देशों में बदनाम वेदांता के खिलाफ एमनेस्टी इंटरनेशल जैसी संस्थाओं ने भी गंभीर आरोप लगाए हैं। केंद्र सरकार की कमेटियां भी मानती हैं कि लंदन की इस कंपनी वेदांता का देश के कायदे-कानून का पालन करने में यकीन नहीं है।
देखा जाए तो बाल्को पिछले कई सालों से विवादग्रस्त रही है। बाल्को में पीएफ घोटाले ने भी बाल्को के अंदर भ्रष्टाचार की बातें और पुख्ता कर दी। उसके बाद बाल्को के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा अपनी कार से दो मज़दूरों को कुचलने का मामला भी काफी चर्चा में रहा, चूंकि वेदांता और राज्य सरकार के आपसी सामंजस्य या आपसी प्रेम की वजह से कोई भी कारवाई नहीं हो पाई। मात्र थाने तक बातें पहुंची, शिकायत दर्ज हुई या अधिक होहल्ला हुआ तो एफआईआर दर्ज हो गई और बात खत्म। बहरहाल 1,800 एकड़ सरकारी जमीन पर वेदांता के बरसों से अवैध कब्जे को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के कई मंत्री 10 बिलियन डॉलर से अधिक की टर्न ओवर वाली कंपनी वेदांता रिसोर्सेस की तरफदारी में लगे हुए हैं। आइये पूरे मामले पर एक नज़र डालते हैं -
- बाल्को द्वारा जमीन कब्ज़े का मामला 1996 में पहली बार तब विवादों के घेरे में आया, जब उसे राज्य-शासन ने कब्जे वाली जमीन का प्रीमियम और भू-भाटक की रकम अदा करने का आदेश जारी किया। उस समय बाल्को भारत सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम था। मामला राज्य और केंद्र सरकार के बीच मंथर गति से चलता रहा। 2001 में सार्वजनिक क्षेत्र के इस उपक्रम को बहुत चालाकी के साथ विनिवेश के लिए खोल दिया गया। यह किसी भी बड़े सार्वजनिक उपक्रम में पहला विनिवेश था और तब यहां के तकरीबन 7000 श्रमिकों ने दो महीने तक हड़ताल की थी और इसमें तमाम मजदूर संगठन एकजुट थे, लेकिन सारे विरोध धरे रह गये और वेदांता ने 551.5 करोड़ में इसके 51 प्रतिशत शेयर खरीद कर इसे अपने कब्ज़े में कर लिया।
- बाल्को द्वारा जमीन कब्ज़े का मामला 1996 में पहली बार तब विवादों के घेरे में आया, जब उसे राज्य-शासन ने कब्जे वाली जमीन का प्रीमियम और भू-भाटक की रकम अदा करने का आदेश जारी किया। उस समय बाल्को भारत सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम था। मामला राज्य और केंद्र सरकार के बीच मंथर गति से चलता रहा। 2001 में सार्वजनिक क्षेत्र के इस उपक्रम को बहुत चालाकी के साथ विनिवेश के लिए खोल दिया गया। यह किसी भी बड़े सार्वजनिक उपक्रम में पहला विनिवेश था और तब यहां के तकरीबन 7000 श्रमिकों ने दो महीने तक हड़ताल की थी और इसमें तमाम मजदूर संगठन एकजुट थे, लेकिन सारे विरोध धरे रह गये और वेदांता ने 551.5 करोड़ में इसके 51 प्रतिशत शेयर खरीद कर इसे अपने कब्ज़े में कर लिया।
- वेदांता को अस्पताल बनाने के लिये छत्तीसगढ़ की नई राजधानी में केवल एक रुपये में 20.23 हेक्टेयर ज़मीन दिये जाने को लेकर भी खूब शोर मचा था, हालांकि यह मामला शांत हो गया है लेकिन जमीन कब्जे के मामलें को लेकर लोगों की निगाहें सरकार पर ठहरी हुई है, हालांकि जिस तरह से भाजपा सरकार के मंत्री वेदांता के प्रेम में हैं, और आज भी ज़मीन के उस हिस्से पर वेदांता का ही कब्ज़ा है। खास बात यह है कि सरकार और वेदांता आज भी उस भूमि पर किसी की भी निगाह नहीं आने देते हैं, येनकेन प्रकारेण या साम दाम दण्ड भेद के जरिए उस हिस्से की खबर नहीं लगने देना चाहते हैं। सूचना के अधिकार के तहत मांगे जाने वाले आवेदनों में भी जानकारी नहीं दी जा रही है। वेदांता की उस भूमि की क्या स्थिति है शायद ही किसी को पता होगा? मगर इससे स्पष्ट है कि उस भूमि पर कुछ तो ऐसा गड़बड़झाला है जिसे वेदांता छुपाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रख रहा है और इस भूमि के फर्जीवाड़े के खेल में राज्य सरकार पूरी तरह संलिप्त है।
- लगभग 1700 एकड़ से अधिक की सरकारी जमीन पर वेदांता ने न केवल अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है, बल्कि उस पर कई निर्माण भी कर लिए हैं। इसके अलावा उस पर इस जमीन के हरे भरे पेड़ों को भी काट देने का आरोप है। जबकि आरोप लगने के कुछ इधर समय बाद ही इन अवैध कटाइयों को लेकर उच्चतम न्यायालय ने अदालती आदेश की अवमानना संबंधी याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय विशेषाधिकार प्राप्त समिति को जांच कर रिपोर्ट देने का आदेश जारी किया है। आरोप है कि वेदांता के अधिकारियों ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी ठेंगा दिखा दिया है और हंसते हुए आज भी राज्य सरकार और न्यायालय के आदेशों के ऊपर खड़े हैं।
- छत्तीसगढ़ के त्ात्कालीन राजस्व मंत्री अमर अग्रवाल ने विधानसभा में जो बयान दिया था, उसके अनुसार 1971 में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भारतीय एल्युमिनयम कंपनी यानी बाल्को को 937 एकड़ जमीन दी गई थी। इसके अलावा 1,136 एकड़ जमीन इस शर्त पर अग्रिम आधिपत्य में दी गई थी कि राज्य शासन द्वारा मांग की जाने वाली राशि का भुगतान करना होगा। इस 1,736 एकड़ जमीन के अलावा बाल्को ने 600 एकड़ से अधिक जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया था। इस तरह बाल्को के कब्जे में 2,700 एकड़ जमीन थी, जोकि आज भी है।
- 2006 में भाजपा सरकार के वनमंत्री रहे ननकीराम कंवर ने वेदांता द्वारा जमीन कब्जे का मामला उठाया और पूरी नाप-जोख करा कर 1,036 एकड़ जमीन पर स्टरलाईट वेदांता के अतिक्रमण का मामला उन्होंने सामने रखा, लेकिन वेदांता पर कार्रवाई के मामले में ननकीराम कंवर की एक नहीं चली, उलटा उन्हें ही मंत्रिमंडल से चलता कर दिया गया।
- 2006 में भाजपा सरकार के वनमंत्री रहे ननकीराम कंवर ने वेदांता द्वारा जमीन कब्जे का मामला उठाया और पूरी नाप-जोख करा कर 1,036 एकड़ जमीन पर स्टरलाईट वेदांता के अतिक्रमण का मामला उन्होंने सामने रखा, लेकिन वेदांता पर कार्रवाई के मामले में ननकीराम कंवर की एक नहीं चली, उलटा उन्हें ही मंत्रिमंडल से चलता कर दिया गया।
- वेदांता द्वारा शासकीय भूमि पर कब्ज़ा करने के मुद्दे को लेकर कोरबा के तहसीलदार द्वारा 2004-2005 में छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 248 के तहत सरकारी जमीन पर अतिक्रमण के 10 मामले दर्ज किए गए थे। इसके अलावा तत्कालीन विधायक भूपेश बघेल की शिकायत पर भी प्रबंधन के खिलाफ 3 मामले दर्ज किए गए थे।
- वेदांता द्वारा जमीन कब्ज़े के इस मुद्दे को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी। लेकिन सरकार की ओर से किसी वरिष्ठ अधिवक्ता या महाधिवक्ता के पेश नहीं होने के कारण सरकार का पक्ष सही तरीके से नहीं रखा जा सका। नतीजतन हाईकोर्ट ने वेदांता प्रबंधन के पक्ष में फैसला दिया कि कोरबा में वेदांता के कब्ज़े में जितनी जमीन है, उसे अतिक्रमण न माना जाए। उच्च न्यायालय ने 6 फरवरी 2009 को 1,804 भूमि पर वेदांता यानी बाल्को प्रबंधन का कब्जा अवैधानिक न माने जाने का आदेश दिया, जिसे 25 फरवरी 2010 को उच्च न्यायालय की डबल बैच ने भी मान्य रखा।
- अब राज्य सरकार के कई मंत्री वेदांता की तरफदारी करते हुए इस पक्ष में हैं कि इस मामले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती न दी जाए। मंत्रिमंडल की बैठक में इस मुद्दे को लेकर जम कर बहस हुई और अंततः मामला राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह के पाले में डाल दिया गया है कि अंतिम निर्णय वही लें।
राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे का आरोप है कि किसी पंचायत कर्मी के निलंबन जैसे मामलो में सरकार बड़े से बड़े वकील को पैरवी के लिए खड़ी कर देती है, वहीं वेदांता अतिक्रमण मामले में साजिशन छोटे वकील को पैरवी के लिए भेज दिया जाता है। सरकार को दुर्ग के वैशाली नगर में 200 मकानों में बुलडोजर चलाने में समय नहीं लगता जबकि वेदांता का कोरबा में जो अतिक्रमण है, उसकी तरफ सोचने की फुर्सत सरकार के पास नहीं है। क्योंकि आज भी राज्य सरकार और वेदांता के बीच आई लव यू ऐंगल नज़र आ ही जाता है। वैसे भी कहावत है कि "इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छिपते" (मुश्क = धुंआ) पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने विधानसभा में ही सरकार को घेरते हुए सवाल पूछा था कि वेदांता अतिक्रमण के मामले में सरकार सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर करेगी या फिर वेदांता के स्वामी अनिल अग्रवाल को बचने का मौका दिया जाता रहेगा? हालांकि बाल्को के निजीकरण में अजीत जोगी की भूमिका भी सवालों के घेरे में रही है।
- इस मामले में कांग्रेसी नेता भूपेश बघेल और कोरबा की एक स्वयंसेवी संस्था ''सार्थक" ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करते हुए वेदांता के कब्जे वाली जमीन पर पेड़ कटाई का मामला उठाया था। जिस पर केंद्रीय सशक्त समिति ने जांच की थी। समिति ने 17 अक्टूबर 2007 को अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें 1,751 एकड़ वन भूमि पर अवैध कब्जे की बात सामने आई थी। इसमें 803 एकड़ भूमि ऐसी थी, जिसके संबंध में उल्लेख भी नहीं किया गया था। इस रिपोर्ट के आधार पर 29 अक्टूबर 2009 को उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि अनुमति के बिना वन भूमि पर पेड़ों की कटाई नहीं की जा सकती है।
लेकिन सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन को लेकर जब जवाब आया तो पता चला कि वेदांता ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी दरकिनार कर दिया और आदेश का पालन नहीं किया है। इस जवाब के अनुसार दूसरे सरकारी अफसरों की आपत्ति के बाद भी सहायक कलेक्टर पी निहलानी के आदेश से वेदांता ने न केवल पेड़ों की कटाई की बल्कि इस आदेश से 70 से अधिक हरे पेड़ कटवा डाले। जब मामला फिर से देश के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो उसने इस मामले में केंद्रीय विशेषाधिकार प्राप्त समिति को जांच कर रिपोर्ट देने का आदेश जारी किया था।
रिश्तों को निभाते हुए अगर भाजपा अनिल अग्रवाल की विदेशी कंपनी वेदांता का जमीन कब्जा मामले में विरोध न करे तो अचरज नहीं होना चाहिए।
- जब तक छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार और देश के तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम के रिश्ते मधुर बने रहे तब तक वेदांता के खिलाफ सरकार ने कोई भी कड़े कदम नहीं उठाए, राज्य सरकार ने ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की जिससे वेदान्ता को कष्ट हो। यहाँ तक कि जांच भी नहीं करवाई गई।
- कॉरपोरेट डकैती का मतलब जानने वाले अधिकांश लोग इस बात को जानते हैं कि देश भर में घूम-घूम कर देशभक्ति की बात करने वाले कांग्रेस के नामी नेता पी.चिदंबरम भी इस विदेशी कंपनी वेदांता के हमजोली रहे हैं। 22 मई 2004 को जब चिदंबरम ने भारत के वित्त मंत्री की कमान संभाली थी, उस दिन तक वे इस विदेशी कंपनी के निदेशक थे और इसके बदले कंपनी इन्हें सालाना 31,16,400.00 रुपये की पगार देती थी। अब अंदाजा लगाइये कि चिदंबरम कैसे कारवाई करते क्योंकि कारवाई न करने के लिए ही तो वेदांता इनको इतनी भारी भरकम पगार हर महीने देती थी।
- भारत की ऐसी-तैसी करने वालों के साथ चिदंबरम के व्यावसायिक रिश्ते शुरू से ही बहुत अधिक मधुर रहे हैं। कॉरपोरेट घोटाले में विश्व पदक हासिल करने जैसा काम करने वाली एनरॉन ने दाभोल परियोजना में भारत को कितने का चूना लगाया, इसका हिसाब जब लगाया गया तब ही समझ आया कि चिदंबरम कितने महान नेता हैं और इस घोटाले में भी चिदंबरम भारत के साथ नहीं, धोखेबाज कंपनी एनरॉन के साथ खड़े थे।
- बताते चलें कि हर्षद मेहता के सहयोगियों के सहारे चलाई जा रही धोखेबाजी करने वाली कंपनी फेयरग्रोथ फाइनेंसियल सर्विसेस लिमिटेड के मामले में तो नरसिंहराव सरकार में वाणिज्य राज्य-मंत्री रहे चिदंबरम को 1992 में अपने पद से हटना पड़ा था।
- यह जानना भी दिलचस्प है कि इस मामलें में कांग्रेसी पी.चिदंबरम की वकालत के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली बतौर वकील दिल्ली उच्च न्यायालय में उपस्थित हुए थे, वही अरूण जेटली आज देश के वित्त मंत्री हैं, यानि कि सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि नक्सल आंदोलन पर कांग्रेसी नेता भले पी.चिदंबरम का विरोध कर रहे हों, नक्सली मुद्दों के कारण चिदंबरम का समर्थन कर रही छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार उनके साथ है, यही तो असली राजनीति है क्योंकि "राम राम जपना, पराया माल अपना" इन रिश्तों को निभाते हुए अगर भाजपा चिदंबरम के पुराने बौस रहे अनिल अग्रवाल की विदेशी कंपनी वेदांता का जमीन कब्जा मामले में विरोध नहीं करे तो अचरज नहीं होना चाहिए।
- बाल्को के विनिवेशीकरण के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने वाले श्रमिक नेता कहते हैं कि सरकार को इस मामले को उच्चतम न्यायालय में ले जाने में देरी नहीं करनी चाहिए थी, मगर सरकार ने इस मामले को लेकर टाल-मटोल का रवैय्या अपनाया और आज भी वेदांता राज्य सरकार के गोद में बैठी है, यह कहीं न कहीं देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करने वाला कदम है।