छत्तीसगढ़ - आरटीआई कार्यकर्ताओं पर नियंत्रण का है प्लान, जल्द ही जारी हो सकता है हिटलरशाही फरमान
सूत्रों की माने तो शीघ्र ही आम आदमी को भ्रष्टाचार उजागर करने के लिए काफी अधिक रूपए खर्च करना पड़ेगा। जबकि भारत सरकार द्वारा पारित सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) में आवेदन शुल्क 10 रूपए निर्धारित किया गया है, चूंकि सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी देने से इंकार नहीं कर सकते हैं अत: आरटीआई के तहत 10 ₹ के आवेदन शुल्क में कोई भी आम आदमी किसी भी कार्य की जानकारी हेतु आवेदन लगा देता है, अगर आरटीआई का आवेदन शुल्क कई गुना अधिक कर दिया जाएगा तो आम आदमी आरटीआई का आवेदन लगाने से पहले सोचेगा। आम आदमी सूचना का अधिकार के आवेदन पर 10 रूपए तो खर्च कर सकता है मगर कई गुना अधिक रूपए खर्च नहीं कर सकता है क्योंकि उसकी प्रति दिन की आय व बचत इतनी अधिक नहीं होती है। इससे स्पष्ट होता है कि नेताओं ने आरटीआई अस्त्र से निपटने हेतु यह युक्ति निकाली है। क्योंकि आम जनता सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) के आवेदनों से प्राप्त जानकारी द्वारा इन भ्रष्टाचारियों की असलियत सबके सामने उजागर कर रही है। इसी सब कारणों से नेता और अधिकारी आरटीआई अधिनियम से बचने का जुगाड़ तलाश कर रहे हैं। संभवतः राज्य सरकार ऐसी ही प्रक्रिया द्वारा RTI पर नियंत्रण लगाने का प्रयास करेगी।
विधानसभा ने वापिस भेजा आरटीआई आवेदन
बिलासपुर के प्रथमेश मिश्रा इस बात से नाराज़ हैं कि छत्तीसगढ़ विधानसभा आरटीआई आवेदन को यह कहते हुए लौटा देती है कि इसका आवेदन शुल्क 500 रुपए है। देश और राज्य के अधिकांश सरकारी दफ़्तरों में सूचना के अधिकार के लिए आवेदन शुल्क 10 रुपए है, लेकिन छत्तीसगढ़ विधानसभा आवेदन को यह कहते हुए लौटा देती है कि विधानसभा में आवेदन शुल्क 10 रूपए नहीं बल्कि 500 रुपए है।
यह विधानसभा का अपना नियम है
2005 में जब सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई) लागू किया गया था, तब यह भी तय हुआ था कि अधिकांश सरकारी कार्यालय अपनी सूचनाओं को जल्द से जल्द सार्वजनिक करेंगे, जिससे किसी को सूचना मांगने की ज़रूरत ही नहीं पड़े। इस क़ानून के बनने के क़रीब 10 साल बाद भी हालत ये है कि सूचना मांगना टेढ़ी खीर बना हुआ है। प्रथमेश कहते हैं, "जिस विधानसभा में राज्य भर की जनता के लिए सवाल पूछने का दावा किया जाता है, वहां आख़िर कोई सूचना लेना इतना महंगा क्यों है?"प्रथमेश इसी सवाल का जवाब पाने के लिए विधानसभा में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन लगाने वाले हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ विधानसभा के प्रमुख सचिव देवेंद्र वर्मा का कहना है कि यह नियम सोच समझकर बनाया गया है। देवेंद्र वर्मा आगे कहते हैं, "सूचना के अधिकार में यह प्रावधान था कि विधानसभाएं अपना पृथक नियम बना सकेंगी। हमने अलग-अलग विधानसभाओं के नियमों का अध्ययन किया। उत्तर प्रदेश विधानसभा और हाई कोर्ट में जो फीस रखी गई है, हमने उसे यहां भी वैसा का वैसा ही रखा है।"
हतोत्साहित करने वाला क़दम
विधानसभा के प्रमुख सचिव से असहमत आरटीआई कार्यकर्ता विनोद व्यास का कहना है कि सरकार का पूरा ध्यान सूचनाओं को बताने से कहीं अधिक इस बात पर है कि सूचनाओं को छिपाया कैसे जाए। व्यास कहते हैं, "विधानसभा का यह नियम सूचना के अधिकार की भावना के ख़िलाफ़ है और यह सूचना मांगने वाले को हतोत्साहित करने वाला है" विनोद व्यास इस पूरे मामले को लेकर अदालत जाने की सोच रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा में सूचना के अधिकार के लिए ली जाने वाली भारी-भरकम रक़म पर रोक लगेगी और नियमतः प्रावधानों के तहत आवेदन शुल्क तय किया जाएगा।
मीडिया पर भी नियंत्रण लगाने की प्लानिंग
सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के अनुसार, छत्तीसगढ़ राज्य शासन मीडिया से भी खुश नहीं है क्योंकि मीडिया ने बीते वर्षों में राज्य में हो रहे बेहिसाब गबन और बड़े बड़े घोटालों का खुलासा कर दिया है और राज्य शासन की सुस्त कार्यप्रणाली, ढुलमुल रव्वैये, लालफीताशाही, हठधर्मिता, नियमों के विपरीत कार्य और मनमर्जी आदेशों की असलियत को खोलकर रख दिया है। अंखफोड़वा व नसबंदी कांड, धान घोटाला, आवास घोटाला, सड़क घोटाला, कुर्सी घोटाला, कैंपा घोटाला, नक्सली क्षेत्रों के खर्च में घोटाला, शिक्षा कर्मी घोटाला, पचासों एनीकेट में घोटाला, खाद्य घोटाला, मेडिकल पदोन्नति प्रकरण, मंत्रालय में नियमों के विपरीत पदोन्नति प्रकरण, भ्रष्टाचारी अधिकारियों की पदोन्नति, सोनी सोढ़ी प्रकरण, कमल विहार प्रकरण, शिक्षा मंत्री की पत्नी का विवादित प्रकरण जैसे बड़े मामलों का खुलासा मीडिया द्वारा ही किया गया।
साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक अख़बारों ने किया कमाल
सबसे प्रमुख तथ्य यह रहा कि इन घोटालों में से अधिकांश घोटालों का खुलासा साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक अख़बारों एवं न्यूज पोर्टलों ने किया, घोटालों का खुलासा करने में मुख्य धारा के दैनिक अख़बारों की भूमिका न के बराबर रही तो वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी नगण्य ही साबित हुआ। इसी सब कारणों से ही राज्य सरकार अब मीडिया के छोटे अखबारों व पत्रिकाओं पर पाबंदी लगाने या नियंत्रण करने की प्लानिंग कर रही है। वैसे भी प्रिंट के दैनिक व नामी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक के भी बड़े व नामी चैनलों की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती है क्योंकि इनकी भूमिका सरकार के पक्ष में अधिक रहती है। जिसका लाभ भ्रष्टाचारी लोग उठाते हैं और चहेते अखबारों को छोड़कर बाकी के अखबारों के पत्रकारों को धमकी दी जा रही है या उन पर जानलेवा हमले किए जा रहे हैं या फिर जान से मार दिया जा रहा है।
पत्रकारों में एकता का अभाव
इसका एक कारण यह भी है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में पत्रकारों में एकता का बहुत अधिक अभाव है, दैनिक अखबारों के पत्रकार अन्य अखबारों के पत्रकारों से स्वंय को महान व श्रेष्ठ मानते हैं। इसलिए छोटे पत्रकारों पर हो रहे हमलों से ये स्वंय को अलग रखते हैं। इनके इन्हीं विचारों के अंतर के कारण प्रेस यानि संविधान के चौथे स्तंभ की आजादी व आस्तित्व पूरी तरह खतरे में है। इस बात को लेकर प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों के पत्रकारों में राज्य की सरकार के खिलाफ काफी आक्रोश है, मगर अफसोस यह आक्रोश दैनिक अखबार के पत्रकारों में दिखाई नहीं देता है क्यों नहीं दिखाई देता है? यह सभी को पता है।
मुख्यमंत्री को सौंपा ज्ञापन
बहरहाल पत्रकारों पर हो रहे हमले की चिंता के चलते कुछ स्थानों के पत्रकारों ने राज्य के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह से चर्चा भी की मगर यहाँ पर भी राजनीति ही हावी रही और मुख्यमंत्री ने ज्ञापन लेकर आश्वासन दिया है कि छत्तीसगढ़ सरकार पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर गंभीर है। मगर मात्र गंभीर हो जाने से पत्रकारों की सुरक्षा कैसे होगी? फिलहाल तो यह रहस्य ही है। इसी मामले को लेकर कुछेक साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक अख़बारों के सम्पादक मिलकर डॉ रमन सिंह से पुन: चर्चा करने की तैयारी कर रहे हैं, बहरहाल यह देखना बाकी है कि संपादकों व मुख्यमंत्री की चर्चा से क्या परिणाम निकलता है? सारांश ये है कि भारतीय संविधान के कई बिंदुओं का प्रदेश में खुलकर उल्लंघन किया जा रहा है मगर कार्यवाही नगण्य है अर्थात "जिसकी लाठी उसकी भैंस", जिसकी सरकार होगी, शासन, प्रशासन, मीडिया एवं आरटीआई पर नियंत्रण भी उसी का ही होगा।