सुल्तानपुर - सरकारी मदद की बाट जोह रहा गूंगा बहरा परिवार
सुल्तानपुर 18 अगस्त 2015 (इनाडू इण्डिया). आजादी के 69 साल बाद हिन्दुस्तान में रहने वाली तमाम जनता की तस्वीर बदल गई लेकिन सुल्तानपुर के एक परिवार की हालत आज भी नहीं बदली।
इस परिवार के साथ पहले तो कुदरत ने मजाक किया उसके बाद देश का सरकारी तंत्र ने इन्हें आजादी का मतलब नहीं समझने दिया। ये परिवार गूंगा और बहरा है। सूरज की पहली किरण के साथ इशारों से शुरू होकर इनका दिन इशारों में ही बीत जाता है।
खास बात यह कि आजादी के बाद तमाम सरकारें आई और गई लेकिन आज तक किसी ने भी इनकी गरीबी और लाचारी पर गंभीरता नहीं दिखाई। दरअसल कूड़ेभार ब्लाक के कसमऊ गांव की रहने वाली शहरुलनिशां के परिवार पर कुदरत ने न जाने कौन सा खेल खेला है। इस परिवार के एक दो नहीं बल्कि पूरा परिवार ही गूंगा और बहरा है। घर की मुखिया शहरुलनिशां का बेटा अयूब किसी तरह मेहनत मजदूरी करके घर की गाड़ी खींच रहा है। गरीबों और लाचारों के लिए चलाई जाने वाली योजनाएं मानों इनके लिये नहीं बनी। आवास के नाम पर छप्पर जरूर है लेकिन घर में न शौचालय है और न ही पेयजल का इंतजाम।
प्रशासन से आवास के लिये कई बार गुहार लगाई लेकिन आवास मिलना तो दूर आपदा में कच्चा मकान गिर जाने पर मुआवजा तक नहीं मिला। अयूब के मददगार रियाज ने बताया कि उनसे जो मदद बन पड़ती है करते हैं लेकिन अगर सरकार इनकी कोई ठोस मदद करे तो शायद इनका कुछ भला हो जाय लेकिन कोई इन गरीबों की सुनने वाला नहीं है। हां, काफी दौड़ भाग की गई तब जाकर अयूब और उसकी पत्नी को विकलांग पेंशन मिल रही है। सरकारी योजनाओं ने तो इनके साथ बेरुखी की ही विकलांगता के नाम पर सरकार से खासी रकम वसूलने वाले एनजीओ भी कभी यहां तक आना मुनासिब नहीं समझे।
खास बात यह कि आजादी के बाद तमाम सरकारें आई और गई लेकिन आज तक किसी ने भी इनकी गरीबी और लाचारी पर गंभीरता नहीं दिखाई। दरअसल कूड़ेभार ब्लाक के कसमऊ गांव की रहने वाली शहरुलनिशां के परिवार पर कुदरत ने न जाने कौन सा खेल खेला है। इस परिवार के एक दो नहीं बल्कि पूरा परिवार ही गूंगा और बहरा है। घर की मुखिया शहरुलनिशां का बेटा अयूब किसी तरह मेहनत मजदूरी करके घर की गाड़ी खींच रहा है। गरीबों और लाचारों के लिए चलाई जाने वाली योजनाएं मानों इनके लिये नहीं बनी। आवास के नाम पर छप्पर जरूर है लेकिन घर में न शौचालय है और न ही पेयजल का इंतजाम।
प्रशासन से आवास के लिये कई बार गुहार लगाई लेकिन आवास मिलना तो दूर आपदा में कच्चा मकान गिर जाने पर मुआवजा तक नहीं मिला। अयूब के मददगार रियाज ने बताया कि उनसे जो मदद बन पड़ती है करते हैं लेकिन अगर सरकार इनकी कोई ठोस मदद करे तो शायद इनका कुछ भला हो जाय लेकिन कोई इन गरीबों की सुनने वाला नहीं है। हां, काफी दौड़ भाग की गई तब जाकर अयूब और उसकी पत्नी को विकलांग पेंशन मिल रही है। सरकारी योजनाओं ने तो इनके साथ बेरुखी की ही विकलांगता के नाम पर सरकार से खासी रकम वसूलने वाले एनजीओ भी कभी यहां तक आना मुनासिब नहीं समझे।