खरी खरी – वाहन चेकिंग के नाम पर, पुलिस वसूली के काम पर
कानपुर 11 अगस्त 2016. भाई हम तो खरी खरी कहते हैं, आपको बुरी लगे तो मत सुनो कोई जबर्दस्ती तो है नहीं। बात कुछ यूँ है कि पत्रकारों के एक संगठन के अध्यक्ष जी परसों रात में पार्टी में जाने के लिए सज़ सवंर कर निकले थे। आदत के अनुसार अध्यक्ष जी ने हेलमेट नहीं पहना था। भाई हेलमेट पहनने से शान घट जाती है न। वैसे भी सर भले ही फूट जाए पर बाल ख़राब नहीं होने चाहिए।
अध्यक्ष जी की बदकिस्मती से रास्ते में चेकिंग लगी थी। वैसे ये पुलिसवाले भी अजीब होते हैं। इलाके में चोरी, डकैती, रेप, मर्डर भले ही रोज़ होते रहें पर बगैर डी.एल कोई गाडी चलाने न पाए क्योंकि किसी ने भी अगर मोटर विहीकल एक्ट का उल्लंघन कर दिया तो शायद भूकंप आ जायेगा, सुनामी आ जायेगी और लोकतंत्र खतरे में पड जायेगा। इसलिए गाड़ी के पेपर चेक करना पुलिसवालों के लिए बहुत जरुरी होता है। आखिर उनने परिवार भी चलाना होता है और इस महंगाई के जमाने में सैलरी से भी कहीं घर चलता है। वैसे भी थानाध्यक्षी/चौकी इंचार्ज़ी लाखों में मिलती है, आखिर उसकी रिकवरी भी तो करनी पडती है।
तो भाई हुआ कुछ यूँ की अध्यक्ष जी की गाडी एक सिपाही ने रोक ली,अध्यक्ष जी ने उसको समझाया की वो पत्रकार हैं और अध्यक्ष भी हैं,पर अगले ने एक न सुनी कहा कि जो कहना है साहब से कहो।अध्यक्ष जी ने मौके पर मौजूद सब इंस्पेक्टर साहब को अपना परिचय दिया पर उनने बगैर कुछ सुने गाड़ी के कागज मांग लिए। दारोगा साहब आज अध्यक्ष जी को रगड़ने के फुल मूड में थे, उनने सोचा होगा कि पत्रकार है इसकी गाडी के पेपर कहाँ पूरे होंगे।
पर ये क्या अध्यक्ष जी तो डिक्की से पूरे पेपर निकाल लाये। और उनके पास तो डी.एल भी था। अब दारोगा साहब का मुंह उतर गया। उनने पेपर देखे बगैर ही अध्यक्ष जी को जाने को कह दिया, पर अध्यक्ष जी फ़ैल गए। बोले की सर जी आपका एहसान हमको नहीं चाहिए, अब तो आप पेपर चेक कर ही लो।
अध्यक्ष जी भी जिद्द के पक्के थे तो पूरे पेपर चेक करवा के ही माने। फिर अध्यक्ष जी ने साहब की क्लास लगाने की नीयत से पूछ लिया की सर जी ये बताइये की कितने पुलिसवालों और उनके परिवार वालों की गाड़ियों में पेपर होते हैं और आप कितनी पुलिस लिखी गाड़ियां चेक करते हो। इस पर दारोगा जी बगलें झाँकने लगे और वहां से खिसक लिए।
बात सही भी है। सारे कानून क्या गरीब जनता के लिये हैं ? खाकी वर्दी वालों पर क्या कोई नियम कानून लागू नहीं होते हैं। कोई पुलिसवाला हैल्मेट क्यों नहीं लगाता। एक मोटर सायकिल पर तीन सवारी चलते पुलिसकर्मी तो आपको आम मिल जायेंगे। पर सब इन्सपेक्टर साहब को तो केवल गरीब जनता और मजबूर पत्रकार ही दोषी नजर आते हैं। पूरी घटना सुन कर हमारा तो ये कहना है कि -
बाकी भाई हम तो खरी खरी कहते हैं, आपको बुरी लगे तो मत सुनो कोई जबर्दस्ती तो है नहीं।
अध्यक्ष जी की बदकिस्मती से रास्ते में चेकिंग लगी थी। वैसे ये पुलिसवाले भी अजीब होते हैं। इलाके में चोरी, डकैती, रेप, मर्डर भले ही रोज़ होते रहें पर बगैर डी.एल कोई गाडी चलाने न पाए क्योंकि किसी ने भी अगर मोटर विहीकल एक्ट का उल्लंघन कर दिया तो शायद भूकंप आ जायेगा, सुनामी आ जायेगी और लोकतंत्र खतरे में पड जायेगा। इसलिए गाड़ी के पेपर चेक करना पुलिसवालों के लिए बहुत जरुरी होता है। आखिर उनने परिवार भी चलाना होता है और इस महंगाई के जमाने में सैलरी से भी कहीं घर चलता है। वैसे भी थानाध्यक्षी/चौकी इंचार्ज़ी लाखों में मिलती है, आखिर उसकी रिकवरी भी तो करनी पडती है।
तो भाई हुआ कुछ यूँ की अध्यक्ष जी की गाडी एक सिपाही ने रोक ली,अध्यक्ष जी ने उसको समझाया की वो पत्रकार हैं और अध्यक्ष भी हैं,पर अगले ने एक न सुनी कहा कि जो कहना है साहब से कहो।अध्यक्ष जी ने मौके पर मौजूद सब इंस्पेक्टर साहब को अपना परिचय दिया पर उनने बगैर कुछ सुने गाड़ी के कागज मांग लिए। दारोगा साहब आज अध्यक्ष जी को रगड़ने के फुल मूड में थे, उनने सोचा होगा कि पत्रकार है इसकी गाडी के पेपर कहाँ पूरे होंगे।
पर ये क्या अध्यक्ष जी तो डिक्की से पूरे पेपर निकाल लाये। और उनके पास तो डी.एल भी था। अब दारोगा साहब का मुंह उतर गया। उनने पेपर देखे बगैर ही अध्यक्ष जी को जाने को कह दिया, पर अध्यक्ष जी फ़ैल गए। बोले की सर जी आपका एहसान हमको नहीं चाहिए, अब तो आप पेपर चेक कर ही लो।
अध्यक्ष जी भी जिद्द के पक्के थे तो पूरे पेपर चेक करवा के ही माने। फिर अध्यक्ष जी ने साहब की क्लास लगाने की नीयत से पूछ लिया की सर जी ये बताइये की कितने पुलिसवालों और उनके परिवार वालों की गाड़ियों में पेपर होते हैं और आप कितनी पुलिस लिखी गाड़ियां चेक करते हो। इस पर दारोगा जी बगलें झाँकने लगे और वहां से खिसक लिए।
बात सही भी है। सारे कानून क्या गरीब जनता के लिये हैं ? खाकी वर्दी वालों पर क्या कोई नियम कानून लागू नहीं होते हैं। कोई पुलिसवाला हैल्मेट क्यों नहीं लगाता। एक मोटर सायकिल पर तीन सवारी चलते पुलिसकर्मी तो आपको आम मिल जायेंगे। पर सब इन्सपेक्टर साहब को तो केवल गरीब जनता और मजबूर पत्रकार ही दोषी नजर आते हैं। पूरी घटना सुन कर हमारा तो ये कहना है कि -
खाकी वर्दी पर इतना गुरुर मत करो।
जुल्म जनता पर इतना हुज़ूर मत करो।।
कलम की ताकत तोपों पर भारी पड़ती है।
पंगा पत्रकारों से लेने का फितूर मत करो।।
बाकी भाई हम तो खरी खरी कहते हैं, आपको बुरी लगे तो मत सुनो कोई जबर्दस्ती तो है नहीं।