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सुकमा पुलिस का हाहाकारी कारनामा - जानिये अंधे आदिवासी को चश्मदीद बनाने का अफसाना

सुकमा 23 जनवरी 2018 (जावेद अख्तर). शीर्षक पढ़कर हंसी निकल जाती है कि ऐसा कैसे हो सकता है, ये जरूर हास परिहास या व्यंग्य होगा। मगर खबर की असलियत पढ़कर हैरानी जरूर होगी कि एक कुदरती रूप से अंधे व्यक्ति को, छग के नक्सल प्रभावित इलाके सुकमा में घटित घटनाक्रम का जिले की पुलिस ने चश्मदीद या प्रत्यक्षदर्शी गवाह बनाया है।


सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार आंखों से देख नहीं पाने वाला व्यक्ति, उक्त घटना को कैसे देख सकता है। मगर हमारा कहना अथवा मानना है कि वो पुलिस ही क्या, जो अंधे को देखने वाला' बहरे को सुनने वाला' गूंगे को बोलने बोला और पंगु को सबसे तेज़ दौड़ने वाला न बना सके।

अंधे को प्रत्यक्षदर्शी गवाह बनाने की कहानी जानिए पीड़ित की जुबानी -
यह उस गांव की कहानी है जिस गांव में 24 अप्रैल 2017 को 25 सी.आर.पी.एफ. के जवान शहीद हुए थे, शहीदों को नमन, और यह अंधा व्यक्ती माड़वी नंदा पिता गंगा इसी गांव का रहने वाला है। चिन्तागुफ़ा पुलिस ने नक्सल केस में आदिवासियों के खिलाफ में एक अंधे आदिवासी को चश्मदीद गवाह बना दिया है। इस चश्मदीद अंधे माड़वी को दंतेवाड़ा जिला सत्र न्यायालय में उसकी बेटी लेकर आयी है। उसने बताया कि मुझे कब में गवाह बना दिया गया मुझे खुद पता नहीं है। जब मैं देख ही नहीं सकता हूं तो बताइए कि प्रत्यक्षदर्शी गवाही क्या दूंगा। दस कदम बिना किसी सहारे के नहीं चल पाता हूँ और मुझे आंखों देखा सच बताने के लिए बुलाया गया है।

क्या कहें या क्या बताएं, ये छग राज्य, भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत का क्षेत्र, बस्तर संभाग के सुकमा जिले का कानून है। जिले के एस.पी. मीणा भी स्वंय को आदिवासी कहतें है, जो राजस्थान के रहने वाले हैं। यहां ये देखना दुखदायी है कि एक ही समुदाय के होने के बावजूद अपने ही समुदाय का कैसे शोषण करते हैं। मात्र पदोन्नति एवं सरकार से तमगे लेने के लिये देखिए आदिवासियों के साथ पुलिस कैसे-कैसे खेल खेलती है।
       
ये है असलियत -
हालांकि अन्य राज्यों एवं छग के शहरी क्षेत्रों के रहवासी शायद इस पर यकीन नहीं करें लेकिन जमीनी हकीकत यानि वास्तविकता तो यही है कि केंद्र व राज्य सरकारें व प्रशासन पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और भू-माफियाओं के लिए आदिवासियों को उनकी पैतृक संपत्ति से जबरिया बेदखल कर रही। छग कोई अपवाद नहीं इसलिए राज्य की सरकार विगत दसियों सालों से आदिवासी समुदाय का दमन करने और जबरिया भूमियों को कब्जाने में लगी हुई है। अत्याचार और फर्जी मुठभेड़ों के न जाने कितने मामले सामने आए ही नहीं। यहां तक कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में भी ये सुरक्षित नहीं। आज इनकी स्थिति खानाबदोश या शरणार्थी या रिफ्यूजी जैसी हो गई है।

इस सच्चाई को कोई ठुकरा नहीं सकता है कि यह लड़ाई जल, जंगल और जमीन की है। भारत देश में जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई वैसे वैसे आदिवासी भगाए और मारे गए, आगे भी यही होगा क्योंकि इनके लिए संविधान नियम और कानून तो ढेरों बने मगर पालन करने की जिम्मेदारी जिन्हें दी गई वे ही उल्लंघन करने लगे। सुरक्षा की जिम्मेदारी जिन्हें दी गई वे ही दमन करने लगे। वास्तविक रूप से देखा जाए तो उद्योगपति, खनन व भू-माफिया पैसे के लिए, सरकार अपने निजी स्वार्थ व सत्ता के लिए तथा सुरक्षा बल व पुलिस तमगे के लिये इनके सफाये पर अमादा है। 

वीभत्स और शर्मनाक घटनाएं सामने आतीं हैं मगर आम नागरिकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मीडिया पर डिबेट तो होता है मगर सिर्फ एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप तक। सोशल मीडिया पर उक्त मामले के फोटो व वीडियो आने पर कमेंट करेंगे, अफसोस करेंगे ज्यादा से ज्यादा दो चार गालियां सरकार एवं पुलिस को देंगे और भूल जाएंगे।

क्या विपक्ष, मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आम नागरिकों की सिर्फ इतने तक ही जिम्मेदारी है?
जबकि ये भी भारत देश के नागरिक हैं यानि भारतीय हैं। लेकिन सरकार और न्यूज़ चैनलों ने ऐसा प्रायोजित किया कि ज्यादातर नागरिकों ने आदिवासियों को अपना दुश्मन मान लिया है, प्रत्येक आदिवासी नक्सली है जो नक्सल के नाम पर हर दिन रक्तपात मचा रहे किसी न किसी व्यक्ति को जान से मार रहे। 

क्या असलियत में प्रत्येक आदिवासी नक्सली है? बिल्कुल भी नहीं।
दरअसल सरकारें अपने मुनाफे को बढ़ाने, उद्योगपतियों व पूंजीपतियों के लिए, प्रशासन और बड़े मीडिया हाउसों के जरिए प्रायोजित तरीके से आदिवासियों को प्रस्तुत कर रही जैसे कि जंगली क्षेत्रों में रहने वाले समस्त लोग भारतीय संविधान और विकास के खिलाफ हैं और वे प्रत्येक भारतीय नागरिक को शत्रु मानते हैं इसलिए आदिवासियों ने हिंसा का रास्ता (नक्सल) अपनाया है। इसी के तहत सरकारें ऐसा दर्शाती है कि प्रत्येक आदिवासी बंदूक लिए खड़ा हुआ है यानि नक्सली बन चुका है। जब तक ज्यादातर भारतीय नागरिक, आदिवासियों को भी भारतीय नागरिक नहीं मानते/स्वीकारते और समाज में बराबर का दर्जा नहीं देते,आदिवासी समुदाय पर किए जाने वाले अत्याचार व दमन को भारतीय नागरिकों पर हो रहे अत्याचार व दमन मानकर साथ में खड़े नहीं होते तब तक सुधार नहीं आने वाला।

सरकार का तंत्र, सच बोलने वाला भी नक्सली -
इससे भी ज्यादा हास्यास्पद तो ये है कि जो भी आदिवासी समुदाय और उनकी परंपरा रीति-रिवाजों को सुरक्षित व संरक्षित करने का प्रयास करता है और सरकारी दमन के खिलाफ आवाज उठाता है उसे भी नक्सली या उनका समर्थक बताकर जेलों में डाल देती है। वर्तमान आधुनिक युग में भी बहुत कम ही लोग हैं जो आदिवासियों को अपना समझते हैं और उनके लिए खड़े होते हैं आवाज उठाते हैं लेकिन उन्हें सरकार नक्सली समर्थक कहती हैं। हालांकि ये कड़वा सच है जिसे अधिकांशतः शहरी क्षेत्रों के निवासी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। बहरहाल इससे इतना तो अंदाजा लगा ही सकते हैं कि छग के बस्तर क्षेत्र की पुलिस क्या करती है और क्या कर सकती है।